ललित गर्ग का कॉलम: क्या लोकतंत्र के हित में है नौकरशाहों का चुनाव लड़ना?

By: Dilip Kumar
10/26/2023 10:56:53 AM

पांच राज्यों के विधानसभा एवं अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले अनेक प्रशासनिक अधिकारी राजनीति में आने के लिये अपने पदों से इस्तिफा दे रहे हैं। इन प्रशासनिक अधिकारियों को नौकरशाही की तुलना में राजनीति इतनी लुभावनी क्यों लग रही है, क्यों राजनीति के प्रति इन नौकरशाहों में आकर्षण बढ़ रहा है? इन्हीं प्रश्नों के बीच अहम प्रश्न है कि आईएएस अधिकारी वी. के. पांडियन द्वारा स्वैच्छिक रिटायरमेंट एवं मध्य प्रदेश में डिप्टी कलक्टर निशा बांगरे का इस्तीफा मंजूर होने की खबरे एवं उनके राजनीतिक दलों से जुड़कर चुनाव लड़ना लोकतंत्र को किस मोड़ पर ले जायेंगे। इनके अतिरिक्त भी कलेक्टर, डिप्टी कलेक्टर, आईएफएस, डॉक्टर, प्रोफेसर आईपीएस अफसर आदि अनेक नौकरशाह राजनीति में अपना भविष्य आजमाने को तत्पर है। लोकशाही और नौकरशाही निश्चय ही लोकतंत्र के दो प्रमुख स्तम्भ हैं। दोनों के कंधों पर लोकतंत्र की सफलता एवं राष्ट्र-निर्माण की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है। देशहित का जज्बा ही दिखाना है तो क्या नौकरशाह में यह संभव नहीं है? ऐसा प्रतीत होता है कि विधायिका एवं कार्यपालिका दोनों का जीवन अनेकों विरोधाभासों एवं विसंगतियों से भरा रहता है। इन दोनों की सारी नीतियों मंे, सारे निर्णयों में, व्यवहारों में, कथनों में गहरा विरोधाभास स्पष्ट परिलक्षित है। यही कारण है कि सत्य एवं संभावनाएं खोजने से भी नहीं मिलती, इनका व्यवहार दोगला हो गया है। दोहरे मापदण्ड अपनाने से उनकी हर नीति, हर निर्णय समाधानों से ज्यादा समस्याएं पैदा कर रहे हैं। पांडियन और निशा के इन फैसलों से कई सवाल खड़े हुए हैं, जिन पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।

नौकरशाहों की राजनीति की ओर बढ़ने की होड़ सेवा प्रेरित तो कतई नहीं है। यह अधिक से और अधिक पाने की भूख है जो नौकरशाही की तरह राजनीति को भी अधिक भ्रष्ट ही करेगी। यह सर्वविदित है कि देश की प्रशासनिक संस्थाएं किस कदर साख एवं समझ के संकट से जूझ रही हैं? उन पर राजनीतिक आकाओं के इशारे पर काम करने का आरोप निराधार नहीं है। यह न तो देश के हित में है और न लोकतंत्र के। ऐसे में, पांडियन और निशा जैसे उदाहरणों से नौकरशाही की विश्वसनीयता को और खरोंचें आएंगी, राजनीति भी साफ-सुथरी रहने की संभावनाएं धूमिल होगी। इसलिए, देश को सचमुच प्रशासनिक सुधार के साथ उसे मजबूत करने के लिये प्रशासनिक अधिकारी अपने पदों पर रहते हुए देश-निर्माण की जिम्मेदारी निभाये, यह ज्यादा जरूरी है। हमारा संविधान तय मानदंडों के तहत अपने हरेक नागरिक को अवसर की स्वतंत्रता देता है, और इस लिहाज से अफसरों के राजनीति में आने में कुछ गलत नहीं है, मगर इन दिनों जिस तरह नौकरशाहों में राजनेताओं के कृपापात्र बनने और पुरस्कृत होने की प्रवृत्ति गहराती जा रही है, उसमें पांडियन एवं निशा जैसे तरक्की पसन्द, महत्वाकांक्षी एवं लालची अफसरों का राजनीतिक में घूसपैठ का मुद्दा अन्य नौकरशाहों को भी सत्ताधीशों से सांठ-गांठ के लिए प्रेरित करेगा। इससे प्रशासनिक क्षेत्र में अजीब ऊहापोह एवं अस्थिरता बनेगी। जरूरत इस बात की है कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका से संविधान ने जो उम्मीदें पाली हैं, उन पर वे खरी उतर सकें और हम आदर्श लोकतंत्र के रूप में दुनिया के लिए एक उदाहरण बन सके।

मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव की सरगर्मियां उग्रता पर है। इस बार वहां चुनावी धमासान में अपना भविष्य आजमाने वाले अफसरों की सूची पर नजर डालें तो निशा बांद्रे डिप्टी कलेक्टर सबसे ऊपर हैं, रिटायर्ड आईपीएस अफसर एमपी वरकडे के कांग्रेस से चुनाव लड़ने की संभावना है। वरद मूर्ति मिश्रा आईएएस की नौकरी छोड़ राजनीतिक पार्टी बना चुके हैं, सभी 230 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने का भी ऐलान कर चुके हैं। वी. के. बाथम रिटायर्ड आईएएस अधिकारी हैं, कांग्रेस में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं, इनके भी चुनाव लड़ने की अटकलें हैं। बी.चंद्रशेखर, किरण अहिरवार, अजिता वाजपेयी पांडे, हीरालाल त्रिवेदी, पन्नालाल सोलंकी, पवन जैन, गाजी राम मीणा, आजाद सिंह डबास आदि अनेक अफसरों के नाम हैं जिनके अब सक्रिय रूप से राजनीति में आने एवं चुनाव लड़ने की संभावना है। अफसरों का राजनीति से बढ़ रहा मोह कोई नया नहीं है। राज्यों से लेकर केन्द्र की राजनीति में इन प्रशासनिक अधिकारियों का वर्चस्व रहा है और दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है। इन प्रशासनिक अधिकारियों के दोनों हाथों में रैवडियां हैं- पहले नौकरशाह के रूप में और अब राजनेता के रूप में।

आजादी के अमृतकाल में पहुंचने तक विभिन्न राजनीतिक दलों में ऐसे नौकरशाह रहे हैं जिन्होंने उच्च सरकारी पदों को छोड़ उच्च राजनीतिक पदों पर रहे हैं। नटवरसिंह, मणिशंकर अय्यर, मीराकुमार, अजीत जोगी, यशवंत सिंन्हा आदि पूर्व में रहे हैं तो वर्तमान में नरेन्द्र मोदी सरकार में अश्विनी वैष्णव (आईएएस 1994-बैच), केंद्रीय मंत्रिमंडल का हिस्सा हैं और उनके पास रेलवे, संचार, इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी जैसे तीन बड़े विभाग हैं। जिन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी के निजी सचिव के रूप में भी काम किया, इसी तरह, हरदीप सिंह पुरी के पास शहरी विकास और पेट्रोलियम विभाग हैं, जबकि आर.के. सिंह बिजली और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्री हैं और अर्जुन राम मेघवाल (आईएएस 1999-बैच) कानून और न्याय, संसदीय मामलों और संस्कृति राज्य मंत्री (एमओएस) हैं। मेघवाल राजस्थान बीजेपी की घोषणा पत्र समिति के अध्यक्ष भी हैं। वहीं, सोम प्रकाश (आईएएस 1988-बैच) वाणिज्य और उद्योग राज्य मंत्री हैं। पूर्व सिविल सेवक भी अब प्रमुख भाजपा की संगठनात्मक भूमिकाओं में कदम रख रहे हैं जो पहले कैडरों के लिए आरक्षित थे, उन्होंने उदाहरण के तौर पर तमिलनाडु भाजपा के अध्यक्ष के रूप में के. अन्नामलाई (आईपीएस 2011-बैच) की नियुक्ति का हवाला दिया। दूसरा उदाहरण रायपुर के पूर्व कलेक्टर ओ.पी. चौधरी (आईएएस 2005-बैच) का है। उन्हें 2022 में छत्तीसगढ़ में भाजपा का महासचिव नियुक्त किया गया था। निश्चित ही इन केन्द्रीय मंत्रीमंडल के सितारों ने प्रशासनिक अनुभवों से मंत्रालयों के कार्यों को नयी ऊंचाइयां दी है।

वैसे, यह कोई पहली बार नहीं है कि प्रशासनिक क्षेत्र के लोग सीधे राजनीति में कूद पड़े हैं, आजादी के वक्त से ही विभिन्न क्षेत्रों के लोग सरकार एवं राजनीति का हिस्सा बनते रहे हैं, और देश-समाज को इसका लाभ भी मिला है। मगर वे अपने-अपने क्षेत्र के माहिर लोग होते थे और उन्हें किसी बड़े राजनेता या राजनीतिक दल के करीबी होने मात्र का लाभ नहीं मिल जाता था। बल्कि उनकी काबिलियत ने सरकारों को बाध्य किया कि वे सरकार में आये और अपनी प्रतिभा-कौशल का लाभ देश को दे। लेकिन पिछले कुछ दशकों में सत्ताधीशों और नौकरशाहों के गठजोड़ ने न सिर्फ राजनीति को विद्रूप किया है, बल्कि शासन-प्रशासन में भ्रष्टाचार की जड़ें इसके कारण गहरी हुई हैं। ऐसे में, निशा एवं पांडियन जैसे लोगों के राजनीति में सक्रिय होने से क्या वर्षों से जनसेवा में जुटे स्थानीय कार्यकर्ताओं के साथ अन्याय नहीं होगा? क्या नौकरशाहों की वरीयता लोकतंत्र की मूल भावना के अनुरूप है? क्या यह राजनीति में एक नये तरह के असंतोष एवं विद्रोह को नहीं पनपायेगी?

पांडियन और निशा का राजनीति में आने का फैसला जनसेवा से प्रेरित हैं या लोभ एवं महत्वाकांक्षाओं की परिणति? यदि उन्हें राजनीति में इतनी ही दिलचस्पी थी, तो प्रशासन में इतने वर्ष खर्च क्यों किए? क्यों नहीं प्रशासन में रहते हुए देश के लिये कुछ अनूठा करके दिखाया। राजनेताओं से भी अधिक अपेक्षाएं नौकरशाहों से की जाती है, यदि वे चाहते तो जनापेक्षाओं खरे उतरते। लेकिन उनके द्वारा जनाकांक्षाओं को किनारे किया जाता रहा है और विस्मय है इस बात को लेकर कि वे चिंतित या शर्मसार भी नजर नहीं आए। जो राजनीतिक शिखर पर हो रहा है उसी खेल का विस्तार आज हमारे प्रशासन के आस-पास भी दिखाई देता है। उससे भी ज्यादा विस्मय यह है कि दूसरांे पर सिद्धांतों से भटकने का आरोप लगा रहे हैं, उन्हीं को गलत बता रहे हैं और नौकरशाह खुद उन्हें जगाने का मुखौटा पहने हाथ जोड़कर सेवक बनने का अभिनय कर रहे हैं।

ललित गर्ग
लेखक, पत्रकार, स्तंभकार


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