एस आर अब्रोल का कॉलम: न्यायालय के फैसलों में विसंगतियों के लिए कौन दोषी है?

By: Dilip Kumar
10/26/2023 10:33:15 AM

न्याय में देरी न्याय न मिलने के समान है। न्यायपालिका प्रणाली की खामियां त्वरित न्याय में रोड़ा बनती हैं। विशेष अभियोजन की लंबे समय तक अनुपलब्धता, वैज्ञानिक साक्ष्यों और दस्तावेज मिलने में देरी तथा गवाहों के पेश नहीं होने के कारण मामले लटकते रहते हैं और कछुए की रफ्तार से आगे बढ़ते हैं। जांच प्रक्रिया और न्यायिक प्रणाली की कमियों के कारण वर्षों तक अपराधियों को सजा नहीं मिलती है। न्याय की उम्मीद लिए लोग पुलिस थाना से लेकर अदालत के चक्कर काटते रहते हैं। अपराध के अधिकांश मामलों में जांच में लापरवाही देखने को मिलती है। अनेकों बार जांच में कमी के कारण अपराधियों को सजा नहीं मिल पाती। इसका लाभ अपराधियों को मिलता है। कम से कम समय में अपराधी को सजा मिले, इसके लिए पुलिस की जांच प्रक्रिया में सुधार करने के साथ, न्यायिक प्रक्रिया की खामियों को दूर करना जरूरी है। फैसलों में देरी से न्यायिक व्यवस्था से मोह भंग होता है। कानूनी प्रक्रिया जब कच्छप गति से आगे बढ़ती है तो वादकारियों को निराशा होती है। बंगाल, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में 65 साल से भी अधिक समय से मुकदमे लंबित हैं। अनेकों मुकदमे 50 साल से लंबित हैं। वादकारियों का न्यायिक प्रणाली से भरोसा उठ रहा है।

ऐसा देखा जाता है कि मेट्रोपोलिटन कोर्ट का फैसला, सेशन कोर्ट में गलत ठहरा दिया जाता है। सेशन कोर्ट में दिया गया फैसला, उच्च कोर्ट में गलत ठहरा दिया जाता है और उच्च न्यायालय का फैसला सुप्रीम कोर्ट में गलत ठहराया जाता है। क्या कानून की व्याख्या हर बार बदल जाती है? क्या यह वहां बैठे न्यायाधीश की समझ के अनुसार बदलती है? एक न्यायाधीश जिन गवाहों और साक्ष्यों को विश्वास योग्य मानता है, तब दूसरा न्यायाधीश उन्हें विश्वास योग्य नहीं मानता। इस तरह साक्ष्यों की विश्वसनीयता कानून द्वारा निर्धारित न होकर न्यायाधीश के निजी विचारों पर निर्भर करने लगती है। यह बड़े खेद की बात है कि भारतीय न्याय व्यवस्था में न्यायाधीशों को गलत फैसला देने के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। यह बड़ी हैरान करने वाली बात है कि एक ही बिंदु पर परस्पर विरोधी फैसले मिल रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय के विभिन्न बेंच परस्पर विरोधी निर्णय लेने के लिए प्रसिद्ध हैं। एक बेंच, एक केस को सुनाने लायक समझती है और दूसरी बेंच उसे तत्काल खारिज कर देती है। जज का काम केवल अंपायर की तरह वकीलों को सुनकर फैसला देना नहीं होता। जिसमें वह एक तरफ के वकील की योग्यता और प्रसिद्धि से प्रभावित होकर न्याय का ही गला घोट दे। न्यायाधीश का कर्तव्य सत्य की खोज है। अगर पुलिस तथा अन्य एजेंसियां अपराध और अपराधी को खोजने में चूक करती हैं तो जज को बताना चाहिए कि पुलिस को और क्या करना चाहिए।

पुलिस की मनमानी पर कोई अंकुश नहीं। न्यायाधीशों की मनमानी पर कोई अंकुश नहीं। न्याय की व्याख्या लिखित कानून के अनुसार न करके अपने विचारों के अनुसार कर दी जाती है। यह आम मान्यता है कि न्यायालय अमीर और रसूखदार लोगों के हितों की रक्षा करते हैं। गरीब के लिए उनके पास कोई समय नहीं है। नोएडा का बहु-चर्चित निठारी कांड देश के सामने है। सारे आरोपी इस आधार पर बरी हो गए की जांच एजेंसियों ने साक्ष्य एकत्र करने का बुनियादी काम भी तय मानदंडों के आधार पर नहीं किया। इससे पहले आरुषि हत्याकांड में भी कुछ ऐसा ही हुआ था। इस तरह जांच एजेंसियों पर गंभीर सवाल उठते हैं और न्यायतंत्र में आम आदमी का भरोसा कमजोर होता है। अभी 5 करोड़ से अधिक मुकदमे न्यायालयों के पास लंबित हैं तथा हर रोज नए मुकदमें दाखिल होते हैं। इसकी चिंता न तो न्यायालयों को है और न ही सरकार को है।
दिल्ली में एक लाख पुलिस कर्मियों पर दस हजार करोड़ रुपए व्यय होते हैं पर अपराध थमने का नाम नहीं लेते। यह लेखक का निजी विचार है

एस आर अब्रॉल

वरिष्ठ स्तंभकार


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